आज शहर में मेला लगा है| बस की खिड़की से आज नज़ारा बदल गया है, आज न टूटा फ़ुटपाथ दिखा, न सड़क के गड्ढे, उन्हें रंग-बिरंगे चीज़ें बेचनेवालों के ठेलों ने ढक दिया, आज सिर्फ़ रंग दिखे हज़ारों खिलखिलाते रंग - हरे, नीले, लाल, गुलाबी, पीले, श्वेत, श्याम - मिट्टी, प्लास्टिक और लकड़ी से बने खिलौनों का रंग, गुब्बारों का रंग, कागज़ की टोपियों का रंग, काँच की चूड़ियों का रंग, नकली फूलों का रंग, अजीबोग़रीब तरह-तरह के कान की बालियों का रंग, और इन सब में घुले बच्चों की लाली का रंग| आज न सड़ते कचरे की बू थी न मोटर के धुएँ की आज बस थी ताज़े गजरों की सुगन्ध, गरम तलते इमरतियों की मोह का सुगन्ध, कचौड़ियों की ललचाती ख़ुशबू, इडली-वडे की, और कुल्फ़ी की वह पलभर की नाज़ुक सी ख़ुशबू| आज ट्राफ़िक के हार्न तो बजे थे रोज़ की तरह, और यत्रियों की गालियाँ भी थीं शायद, पर मेरा ग़ौर कहीं और था - लडकियाँ चूड़ी खनखना रहे थे, बच्चे-बच्चे का शोर था, हँसते बच्चे, रोते बच्चे, ज़िद्द पे अडे ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते बच्चे - ठेलेवालों की पुकार थी - गरमा-गरम समोसे, मनमोहक चुनरियाँ, मस्ती भरे प्लास्टिक के ट्रम्पेट, सब बिक रहे थे, "भारत का नाम, चीन का...